Apr 6, 2009

बोलती आँखें

कुछ न कह कर कह जाती हैं

कितना सब कुछ ये आँखें

मदहोशी के आलम को

ख्वाबों से सजाती ये आँखें

मन के हर अंधेरे को

राह दिखाती ये आँखें

हर उजले सवेरे को

शर्मसार करती ये आँखें

क्या क्या बोल जाती हैं एक इशारे से

टपका जो एक moti इनके किनारे से

दर्द की भी तड़प उठती हैं साँसे

बयां कर जाती हैं कभी ऐसे हालत ये आँखें

चाँद भी फीका पड़ गया है आज

जो चमक उठे हैं इनमें हजारों राज़

क्या इनमें एक दुनिया देख रहा हूँ मैं?

या जागते हुए सपने बुन रहा हूँ मैं?

सच है की दीवाना हो चला हूँ मैं

पर हर सच को झुट्लाती ये आँखें

कुछ न कह कर.........




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