Sep 19, 2009

आज़ादी


तुमने हमेशा लम्हों को यादों की ज़ंजीरों से बांधना चाहा
हर सपने को हकीक़त की सीमाओं में क़ैद किया
खूबसूरती को तस्वीरों में छुपाने की कोशिशें की
और अपने इर्द-गिर्द अपनी ही चाहत का किला बनाया,
और आज तुम आज़ादी की बात करते हो?
ये बिन जाने,
कि जिन बन्धनों में बाँध रहे हो तुम
ख़ुद उनमें उलझते से जा रहे हो ...

Sep 3, 2009

एक सवाल


ऐसा क्यों होता है कभी कभी कि

बातें शब्दों के जाल में उलझकर रह जाती हैं,

इरादे कोशिश के दायरे से निकल कर हकीकत को नही छू पाते हैं

सुबहें पलकों के परदों को पार कर आंखों से नही मिलती,

और आवाजें इन कानों को चीर कर दिल तक नही पहुँचती

क्यों हम खुली आंखों से सच को झुठलाते हैं और,

अपनी हालत का जिम्मेदार हालात को ठहराते हैं?