Dec 3, 2011

तुम कौन हो ?

बाहें फैलाए मिलने वाले सूरज के जैसे,
मेरे दिन रोशन कर जाया करते थे
अब ढलती शाम के ओझल होते दिन के जैसे
थोडा सा अँधेरा इस कमरे में भर जाते हो

दौड से हांफती इस जिंदगी में साँसों के जैसे
मेरे सीने में भर जाया करते थे
अब टूटते जिस्म की आखिरी श्वासों के जैसे
थोडा सा मुझे अकेला कर जाते हो

महफ़िल में गूंजने वाले बोलों के जैसे
मेरे होंठों पर सज जाया करते थे
अब किसी भूले हुए गीत के लफ़्ज़ों के जैसे
थोडा सा यादों से खोते जाते हो

अब मैं क्या कहूँ तुमसे की तुम कौन हो
कल तुम मेरे गीत थे
अब तुम मेरे मौन हो ..

Oct 2, 2011

बस कुछ यूँ ही

चाँद बनने की तमन्ना भी रखते हैं
और धब्बों से परहेज़ भी करते हैं
आसमान छूने की ख्वाहिश भी रखते हैं
और आँखों में सूरज का खौफ़ भी करते हैं
कुछ अजीब ही हैं तेरे शहर के लोग, ए यार
शोर को इज़हार समझते हैं और,
ख़ामोशी नज़रअंदाज़ करते हैं...

May 7, 2011

The days

Written for the climax of a short film on college life.

ओस की एक बूँद एक रात अनजाने में एक पत्ते से मिल गयी
और जिसको पड़ाव समझा था वो शेह ज़िन्दगी सी बन गयी
अब तो ये भी होश नहीं की उस मोड़ के बाद ज़िन्दगी किधर गयी
एक गीत , एक हंसी और कुछ धुआं बनकर शायद हवाओं में बिखर गयी
ए दोस्त तेरे साथ , और उसकी एक हंसी से लगा सारी उलझने सुलझ गयी
चल पड़ा था जिनपर यूँ ही , वो र|हें मंजिल सी बन गयी
पर अब ये सफ़र ख़त्म होने को है
राह का मुसाफिर अपनी मंजिल पाने को है
पर जो बातें यादें बनकर इन लम्हों में गुज़र गयीं
शायद वही जीने के एहसास को पूरा कर गयीं

Apr 24, 2011

तेरा सपना

कुछ अधूरा सा, कुछ अपना सा
तेरा सपना कल रात, इन आँखों में सिमट गया
रात की तरह ही ये मन भी अँधेरे में था
एक जुगनू की तरह वो मुझमें चमक गया
अब भला इस खूबसूरत मुलाक़ात को मैं ख्वाब कैसे कहूँ?
जब एक अनकहे पल में तू मेरी हकीकत बन गया …

Apr 8, 2011

सफ़र और मंजिल

बहुत दूर आ चुका है अब इंसान
हैरत है होती अब कि मंज़िल कहाँ थी

चाँद पर कदम जमाये तो एक अर्सा गुज़र गया
ख्याल भी नहीं अब कि ज़मीन कहाँ थी

अपने हालातों को मजबूरियों का नाम दे दिया
याद नहीं आता है अब कि चाहत क्या थी

मुल्क और मज़हब का नुमा इन्दा बना है हर शख्स
इन लोगों की भीड़ में इंसानियत कहाँ थी

काश की कभी रुक कर सफ़र पर सोचा होता
पर इस अंधी दौड़ में इतनी सी भी फुर्सत कहाँ थी

Feb 2, 2011

तब मंदिर बने

एक दिन यूँ ही भावनाओं में बहकर मैं

उसको वहां से अपने साथ ले आया

सोचा था बस जाएगा वो भी साथ हमारे

जैसे कितने ही रिवाजों ने है घर बनाया

पर देखकर इस दुनिया की दुनियादारी

वो कुछ इस तरह से तिलमिलाया

की मैं भगवान् को मंदिर में छोड़ आया


पहले पहल तो हर किसी ने उसे अपनाया

उसकी बातें सुनकर तारीफों का पुल भी बनाया

पर जब चलने की बात की उसने दिखाई राह पर

सबने उसे भटका हुआ राही बुलाया

बस इसीलिए मैंने एक मंदिर बनाया


सब जानते थे की उसकी पहचान क्या है

सब जानते थे की उसका पैगाम सच्चा है

पर भीड़ के सामने कोई आवाज़ न उठा पाया

इसीलिए मैं भगवान् को मंदिर में छोड़ आया