Dec 12, 2013

रंग

आज सुबह आसमान का रंग सुर्ख लाल था
जैसे तुम्हारे हाथों से
होली के कुछ रंग छलक गए हों
सारा दिन कमबख्त जिंदगी की धूप ने
इस रंग को उड़ाना चाहा
ये हल्का तो हुआ
पर कभी पूरी तरह मिट न सका
और रात को अँधेरे कि चादर ओढकर दिन सो गया
तुम्हारे रंगों को सीने में छुपाये
जो एक नयी सुबह फिर इसके साथ जी उठेंगे... 

Jun 10, 2013

You've reached a dead blog!!

Whatever source may have guided you here, I am sorry to inform you that this is a dead blog. If you were a regular reader or visited this page anytime before, then I would like to thank you for your support. For all those who commented on my posts, I thank you and I got to learn quite a few things from you.

The older posts are available in the archive on the right. Feel free to glance/read/use it in any way you may find them useful.

Goodbye for now!

Jun 3, 2013

दादी की कहानियाँ


रातों के घंटों में बंटने से एक ज़माना पहले
जब चाँद का तकिया लगाकर
आसमान की काली चादर पर
तारों का बिस्तर सजता था,
तब दादी,
कहानियों के कुछ फूल चुनकर
मेरे पास रख जाती थीं

कुछ राजा-रानी और
राक्षस की जान खुद में समेटे तोते
बहुत देर तक
कमरे की हवाओं में तैरते रहते थे
हर रोज एक नयी सी लगने वाली कहानी
आँखों के परदे पर गुज़र जाती थी
और अपनी दुनिया में मुझे कहीं गुम कर जाती थी

इस बात के एहसास में शायद बरसों लग गए
की हर कहानी का अंत हमेशा मुझे मालूम होता था
राजा रानी से अमूमन मिल ही जाता था
फिर भी जाने क्यूँ
रोज़ इन्हें सुनने में एक नया मज़ा आता था...

शायद तब कहानियों को जीना
अंत तक पहुँचने से ज़्यादा एहमियत रखता था
और शायद इसीलिए जिंदगी के कामों में कहीं
अब वो मज़ा नहीं आता...

(Image source: http://images5.fanpop.com/image/polls/855000/855238_1318607051730_full.jpg)

May 13, 2013

क्यों: Some experimental poetry

I am trying to innovate on existing forms of poetry with this post. This is an innovation inspired by the haiku tradition. The presentation of this poem is designed as follows:
  • The expression is in the form of very short phrases leaving the interpretation open to the reader to some extent
  • It begins with two related but seemingly different question
  • Each stanza answers the two questions, in order of their appearance, in a concise way till the point both the questions seem to merge
  • A final conclusion is in the form of a word picture
Please give your feedback and you are also welcome to try your hand at this new game format in comments.

जीना...
लिखना...
क्यों?

अपरिचित क्षमताएँ.
अनदेखे सवाल.

उलझे राज़.
हकीक़त का रोग.

खुद का एहसास.
सपनों की तलाश.

चैन की सांस.
स्वछन्द सोच.

अपरिमित ब्रह्माण्ड.

(Picture Source: http://www.openlounge.org/lunargame/files/2011/11/question-blue.jpg)

May 3, 2013

मिट्टी



सुना था कभी कि इंसान मिट्टी से बना है
इसीलिए शायद इसे मिट्टी से इतना लगाव है
कि आसमां के फैलाव की बजाय
ये मिट्टी की लकीरों में अपनी पहचान ढूँढता है
और रहता है तैयार मिट्टी में मिलाने को
उन सबको जो इसकी मिट्टी के दायरे के उस पार रहते हैं
सचमुच इंसान मिट्टी का ही बना होगा
वर्ना एक धड़कता दिल इतना बेपरवाह कैसे हो सकता है

(Photo Source: http://www.flickr.com/photos/danhacker/4305416079/lightbox/)

Apr 21, 2013

बोल

मैं अक्सर कुछ कम बोलता हूँ,
इसलिए मेरे बोल अक्सर मुझ तक ही रह जाते हैं
किसी बंद मुट्ठी में क़ैद कुछ राज़ों की तरह...

अगर तुम कभी ये मुट्ठी खोलती
 तो तुम्हे मालूम पड़ता
कि किसी तितली की तरह कैसे ये बोल
तुम्हारे आस पास मंडरा सकते थे
और शायद,
तुम्हारे सुर्ख होंठों से एक कतरा चुराकर
वख्त और जगह के धागों से आज़ाद हो जाते ये बोल
तब तुम कभी किसी किनारे पर कोई
'शेल' उठाकर कानों तक लाती तो
तुम्हे मेरी आवाज़ में अपना नाम सुनाई पड़ता

Feb 22, 2013

अभी ज़रा देर पहले ही तो खामोश बैठा था
लगता था दुनिया की सारी चीखें भी
इसे सोच से जगा नहीं पाएंगी,
चाहे कितनी भी आंधियां आयें या जाएँ
इसकी नीली आँखों में कहीं खो कर रह जाएँगी,
फिर एकाएक किसी को पुकार कर टूट सा गया
और बहने लगी धारें चमकती हुयी आँखों से,
ये आसमां भी आजकल बहुत 'मूडी' हो गया है,
इस पर भी तुम्हारी संगत का असर आ रहा है...



Feb 9, 2013

शायरी

एक ठहरे हुए पल में रुक नहीं पाती है जो,
और बेचैन सी ढूंढती रहती है मायने
कभी पुरानी डायरी के पन्नों में,
और कभी कैलेंडर कि अगली तारीखों में
ये शायरी भी जिंदगी जैसा ही रोग है,
जो कभी मुकम्मल तो नहीं होती
पर पूरी ज़रूर होती रहती है...

Jan 11, 2013

परिंदे


इन सर्द रातों में कुछ परिंदे,
शहरों में,
दर बदर भटकते फिरते हैं
कांच की भट्ठियों में जलती आग,
उन्हें गर्मी नहीं देती
ढलता सूरज घरौंदों से,
उन्हें पुकारने की बजाय,
अँधेरी रात का खौफ़ दिलों में भर जाता है

छोड़ कर अपने गाँव चले आये थे जो,
कभी दाने की तलाश में,
या अपने घरों को गुम होता देख,
शहर के अज़गर की सांस में
वो परिंदे गुज़रते हैं अब
इन बर्फानी गलियों से नंगे पाँव
आँखों में एक ही सपना लिए
कि इन कंक्रीट के जंगलों में कहीं,
अपना भी एक घोंसला हो
और पंखों को भटकने अलावा,
ठहरने की भी आज़ादी मिले