Mar 5, 2014

The final musing

The last one before I take another long break from scribbling.

जिस्म भटकता रहता है वक्त के दो किनारों के दरमियान 
पर कभी सोचा है कि इस खाके को भटकने की
ताक़त कहाँ से मिलती है?

ख्वाब और अरमान तो हल्के हवा के झोंके हैं
इनमें ज़िंदगी की परवाज़ को चलाने की कूव्वत कहाँ दिखती है!
एक और आग है खौफ़ की जो शायद काम आ जाती हों कभी
पर इसके असर में जान कितने ही लम्हे टिक सकती है!

तो क्या जो किस्से सुनाते हैं फकीर वही सच हैं
और इस खाके को हटाने पर कोई रूह मिल जायेगी?
शायद ये सच हों पर डरता हूँ गिरेबान में खुद के झाँकने से
की इस परदे के पार भी न कहीं उनकी ही सूरत दिख जायेगी...

मुलाक़ात

Dedicated to the great Rumi who once wrote, "Beyond all the concepts of wrong doing and right doing 
There is a field….. I will meet you there....!!!! "



इंसान की सोच की सरहदों के पार,
जहाँ हर बात खामोशी के दामन में
सर छुपा कर
बरसों से अपने अंदर भरे शोर को
खो देती है

होश और बेहोशी के जहानों के परे,
जहाँ ख्वाबों की आवारगी को भी
ठहराव मिलता है...

कभी कोई वादा तो नहीं किया तुमने
पर फिर भी यकीन है मुझे
कि तुम मिलोगे वहीँ
जहाँ दिन की प्यास और रातों की राहत
मिलकर ज़िंदगी को पूरा कर जाते हैं

वहीँ इंतज़ार करूँगा मैं तुम्हारा...

More random lines

सावन को गिला है आसमां से कि
"भूल जाओगे तुम मुझे मौसम बदलने के बाद"
अब ये बेचारा कैसे बताये उसे कि
महीनों इसकी आँखों पर किसकी यादों का कुहरा छाया रहता है...

Random lines

ये सिगरेट का धुआं,
जो मेरे कमरे में तुम्हारी शक्ल बना जाता है,
ठहर जाने दो इसको,
फिर कोई नयी चिंगारी जलाएंगे...

दीवाना

ज़िक्र तेरा आ जाएगा लोगों की बातों में कहीं
तो यूँ पेश आयेंगे की नाम तेरा सुना भी नहीं
और जो मेरी बदकिस्मती से तुम कभी सामने आ जाना
तो अपने सपनों के पंखों पर सवार
इस यादों के की इमारत के ऊपर से गुज़र जाना
पर कभी एक पल के लिए भी न उतरना इसके आँगन में
क्योंकि इस घर की छत मेरी आँखों की नमी से कुछ सिली सिली रहती है
ये टपकती तो नहीं पर तुम्हारी शाम की महफिलों के काबिल भी नहीं
इसकी दीवारें मेरे हौसलों की तरह कागज की बनी हैं
जो तुम्हारी एक आवाज़ पर ताश के पत्तों की तरह गिर भी सकती हैं
और इसके दरवाज़े बंद रहते हैं सिर्फ इस ख्याल से,
की कहीं कोई और हवा का झोंका इसकी नीव न हिला दे
तो इसलिए, जो मेरी खबर जानने का जी भी कर जाए अगर
तो लोगों से बस इतना पूछ लेना
कि क्या अब भी इस शहर में कोई दीवाना रहता है..

वो आँखें

जहाँ के कम-रोशन चेहरों की भीड़ में
खुलते हैं दो चमकते दरीचे नूर के,
जब कभी वो मुस्कुरा देते हैं
वो दो आँखें कुछ ऐसी लगती हैं जैसे,
सुबह की धूप में चमक रहीं हों
ओस की बूंदें पत्तों पर
वो ओस की बूंदें,
जिनकी उम्र भले ही एक पल ही क्यूँ न हों
पर उन्हें देखने की खातिर
सूरज सदियों से ज़मीन के फेरे लगा रहा है
बस इस उम्मीद में कि एक दिन
उस से आ मिलेंगी ये चाहत के बादलों पर सवार होकर...
इश्क नहीं तो बस उनकी आरज़ू किये जा,
वो जो दूर हैं बस उनकी जुस्तजू किये जा,
क्या हुआ जो मिलते नहीं कभी दिन और रात,
इस शाम के वहम में ही एक ज़िंदगी जिए जा...

लफ़्ज़ों का शोर

आज रात के दामन में हसीं ख्वाब कुछ ज़्यादा ही थे,
इतने ज़्यादा की आँखों में उन्हें समा लेने पर,
पलकों से छलक जाने का डर महसूस होता था
इसीलिए जागता रहा मैं रात भर...
उन ख्वाबों को खुली आँखों के सामने लेकर,
न वो कुछ बोलते थे और न मैं कुछ कहता था
पर दोनों एक दूसरे के हालात खूब समझते थे

इस खूबसूरत खामोश लम्हे को
जब मैंने लफ़्ज़ों में क़ैद करने की कोशिश की
तब रात की ख़ामोशी में अल्फाजों की ज़हर घुल गयी
और वो पूरी सी दिखती नज़्म अधूरी रह गयी...

Happy Republic Day

समय के दो सुनहरे किनारों को जोड़ने वाले,
आज के नाज़ुक से पुल पर
धीमी रफ़्तार से चलता हुआ,
ज़माने की हवाओं से कभी
लडखडाता, कभी संभलता हुआ
कन्धों पर ख्यालों से भरे बस्ते का वज़न उठता,
घुटनों पर लगी चोटों को समझकर कदम बढाता
एक बच्चा दिखता है मुझे
दुनिया में अपनी राह बनाता,

इस छोटी सी उम्र में ही माथे पर
तजुर्बे की लकीरें नज़र पड़ती हैं,
कहीं कहीं अपनों की दी हुयी चोटों से
चेहरे पर शिकन भी दिखती है
पर हर अफ़सोस भूलकर मुस्कुरा देता है वो
बस एक बार जो कोई उसे अपना भारत कहकर पुकार दे .

एक शाम

Based on the memory of the setting sun across the Mandvi river in Goa.

इस किनारे पर बैठे हुए,
हर गुज़रती हुयी कश्ती के साथ
नज़रों से मैं दूसरे किनारे को छू आता था

वो दूसरा किनारा जहाँ की दलदली ज़मीन में
सूरज फंसता और डूबता जा रहा था
उसने आवाज़ तो लगायी होगी मदद की,
पर जलने के डर से किसी ने हाथ न बढ़ाया होगा
या फिर अपनी ही आग से डर कर
उसने ही किसी को नहीं बुलाया होगा...

कुछ भी हो,
वो धीरे धीरे डूबता गया और नदी बुझती गयी
और हर रोज़ की तरह
शाम अपना तमाशा पूरा कर
रात के परदे के पीछे जा बैठी.
कभी कभी दिल फ़कत इस फिराक से तेरी आवाज़ सुनना चाहता है कि
यकीन आ जाए कि मैं हूँ कहीं,
तेरे जहाँ में न सही
तो तेरे ख्यालों में ही कहीं,
तेरे वादों में न सही
तो तेरे गुज़ारे इरादों में ही कहीं,
आज अपने वुजूद पर कुछ शक सा हो रहा है
एक बार नाम ले लो मेरा,
कि खुद पर यकीन आ जाए...

इंकलाब

मेरे कमरे में एक कोना ऐसा भी है
जहाँ सूरज की रौशनी नहीं आती,
और दीवारें सीलन से कुछ नम पड़ी हुयी हैं,
ऐसा लगता है कभी अँधेरे में चुप चाप रोयी हों...

उसी कोने में रखी एक बंद अलमारी में,
पड़ी हैं कुछ पुरानी किताबें और डायरियाँ
जिनमें क़ैद हैं सैकड़ों इन्क़लाब,
जो उबलते खून की लहरों से पैदा होकर
कागज़ के किनारों से टकरा कर खो गए,
जिनके सवाल,
आदतन हाँ या ना कहने वाली भीड़
के कानों में पड़कर कहीं गुम हो गए,
या लोगों के 'पर्सनल लाजिक' की बेसिरपैर की जंजीरों में
उनका दम घुट गया था
और कभी कभी अपनी ही सूरत से शर्माने वाले 'टीनेजर'
की तरह आईने के सामने न आ सके...

आज जब कुछ लोगों को किसी फोरम पर
बदलाव की बातें करते देखा
तो जाने क्यूँ
वही कोना याद आ गया...

मुसाफिर

अपने ज़हन के झोले में जाने किस तरकीब से
इरादों की इमारतें रखकर चलता हूँ
कुछ एक ख्याल के रास्ते भी हैं
जो इसमें यूँ ही फिट हो जाते हैं
और ले आता हूँ साथ तुम्हे भी,
यादों की गठरी में बांधकर,
बस कहने को ये मुंबई है और वो दिल्ली थी,
पर अपने शहर तो मैं साथ लिए फिरता हूँ...