Mar 5, 2014

इंकलाब

मेरे कमरे में एक कोना ऐसा भी है
जहाँ सूरज की रौशनी नहीं आती,
और दीवारें सीलन से कुछ नम पड़ी हुयी हैं,
ऐसा लगता है कभी अँधेरे में चुप चाप रोयी हों...

उसी कोने में रखी एक बंद अलमारी में,
पड़ी हैं कुछ पुरानी किताबें और डायरियाँ
जिनमें क़ैद हैं सैकड़ों इन्क़लाब,
जो उबलते खून की लहरों से पैदा होकर
कागज़ के किनारों से टकरा कर खो गए,
जिनके सवाल,
आदतन हाँ या ना कहने वाली भीड़
के कानों में पड़कर कहीं गुम हो गए,
या लोगों के 'पर्सनल लाजिक' की बेसिरपैर की जंजीरों में
उनका दम घुट गया था
और कभी कभी अपनी ही सूरत से शर्माने वाले 'टीनेजर'
की तरह आईने के सामने न आ सके...

आज जब कुछ लोगों को किसी फोरम पर
बदलाव की बातें करते देखा
तो जाने क्यूँ
वही कोना याद आ गया...

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