Mar 5, 2014

The final musing

The last one before I take another long break from scribbling.

जिस्म भटकता रहता है वक्त के दो किनारों के दरमियान 
पर कभी सोचा है कि इस खाके को भटकने की
ताक़त कहाँ से मिलती है?

ख्वाब और अरमान तो हल्के हवा के झोंके हैं
इनमें ज़िंदगी की परवाज़ को चलाने की कूव्वत कहाँ दिखती है!
एक और आग है खौफ़ की जो शायद काम आ जाती हों कभी
पर इसके असर में जान कितने ही लम्हे टिक सकती है!

तो क्या जो किस्से सुनाते हैं फकीर वही सच हैं
और इस खाके को हटाने पर कोई रूह मिल जायेगी?
शायद ये सच हों पर डरता हूँ गिरेबान में खुद के झाँकने से
की इस परदे के पार भी न कहीं उनकी ही सूरत दिख जायेगी...

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